इस क़दर गर्द से भरी है माज़ी की क़िताब
इसके पन्नों को पलटने में भी डर लगता है
कोई ले ले जो तेरा नाम तो भर आता है जी
दिल पे अब भी तेरी चाहत का असर लगता है
दो चार दिन में उतरता नहीं उल्फ़त का नशा
गर जो एक बार हुआ सारी उमर लगता है
हर एक ज़ख्म में अब ढूँढता हूँ वो ही ख़लिश
दर्द हो सर में भी तो दर्दे जिगर लगता है
पहले रहते थे यहाँ थोड़े बहुत मोहसिन भी
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