Wednesday, 21 September 2011

गिरता दरख़्त

गिरता दरख़्त देता है शाखों को तसल्ली
तूफ़ान से मत डरना मैं हूँ तुम्हारे साथ

डूबते एक शख्स ने लोगों को दी आवाज़
ले जाऊँगा उस पार तुम मेरा पकड़ लो हाथ
नस नस पे जिसके आज ज़माने का क़र्ज़ है
निकला है सारे शहर को अब बांटने खैरात

दावत के इंतज़ाम में सब लोग हैं मसरूफ़
अब किस को हम बताएं नहीं आयेगी बारात
 

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