Thursday, 15 September 2011

ग़र तमन्ना है



ग़र  तमन्ना है थोड़ी   देर और जीने की
अपने आग़ोश  में भर लो खुली हवाओं को  
 
भिगाती जाएँ  सारी रात  बारिश की ये बूंदे
बना  के रक्खो तुम महमान  इन  घटाओं को

ज़मीं मेरी है उसी से लिपट के रो लूँगा
क्यूँ सुनाऊं मैं दर्द अपना इन फिज़ाओं को

किसे मालूम है क्या लाएगा नया लमहा  
सम्हाले रखना बुरे वक़्त में दुआओं को

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