Wednesday, 25 May 2011

थोड़ी खताएँ मेरी

याद बस उनको रहीं थोड़ी खताएँ मेरी
मेरा छिप छिप के सिसकना न उन्हे याद आया

ज़िक्र होता रहा बुलंदी ए इमारत का
सारी बातों मेँ न कहीं चर्चा ए बुनियाद आया

सर पे सूरज था किसी और से मैं क्या कहता
छोड़ कर साथ गया जब मेरा अपना साया 
कि जाके बस गया लम्हा जो मेरे माज़ी मेँ
उसे मैंने लाख बुलाया वो नहीं आया
 

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