जिन्हे हम भूल गए शाम के धुंधलके मैं
उन्ही लोगों से हर सुबह मिलाती ये क़िताब
मन की गीता पे जमीं धूल की कई परतें
अपनी नाज़ुक सी उंगलियों से हटाती ये क़िताब
हमने मिलजुल के उठाए जो ज़माने के सितम
उन्ही लमहात को रह रह के दिखाती ये क़िताब
लौट कर आते नहीं फिर से कभी गुज़रे दिन
मुझको इस बात का एहसास दिलाती ये क़िताब
मेरी ज़िंदगी मैं थोड़ा और रुक ..ए मेरी फ़ेस बुक
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