इतनी कड़ी है धूप पिघलने लगा है जिस्म
क्यूँ दर्द पिघल कर के समंदर नहीं बनता
देखा है सरे बज़्म तुझे बारहा मैंने
आँखों मैं तेरा अक्स क्यूँ अक्सर नहीं बनता
हम रेत पे लिखते रहे हाथो से तेरा नाम
ख्वाबों के घरोंदों से कोई घर नहीं बनता
गर मैं न चढ़ाता जो अक़ीदत के तुझे फूल
पत्थर ही रह जाता तू ईश्वर नहीं बनता
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