छाए हैं फिर बादल गहरे
फिर जागे हैं स्वप्न सुनहरे
यूँ ही बीत न जाए सावन
थोडा सा तो नांच मेरे मन
फिर से आज किसी का आँचल
लहराकर कर कहता है आ चल
किसकी बाट निहारे कोई
जीवन भाग रहा है प्रतिपल
चलाचली के इस मेले में
कौन यहाँ पर कब तक ठहरे ,
छाए हैं .....
आ क्षितिज के लाल प्रष्ट पर
फिर से लिख दें वही कहानी
बीती घड़ियों से फिर सुन लें
उन पर बीती उनकी ज़बानी
आ पलकों में फिर से बसा लें
कुछ भूले भूले से चेहरे
छाए हैं .....
तू पूछ लहर से सागर में
क्यूँ कर इतना इठलाती है
पल भर में उठ कर बनती है
फिर पल भर में मिट जाती है
ये अंकगणित है जीवन का
इसके नियम भी अलग अचम्भे हें
तो हमने तुमने साथ जिए
वो पल सदियों से लम्बे हैं
थोड़ी दूर बची है मंज़िल
अब तो तोड़ जगत के पहरे
जीवन भर तो सुनता आया
अब तो अपनी भी कुछ कह रे
छाए हैं .....
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