Saturday, 29 October 2011

चलता ये कारवाँ


कितना ग़ाफ़िल है आदमी जो ये सोचता है
दिखाई देती है जितनी है बस यही दुनियां

तेरे हिस्से में तो आये गिने चुने लमहे
हैं इस ज़मीन के नीचे दबी हुईं सदियाँ

छोटी चादर है तो फिर पैर न फैला इतने
ज़रा सी ज़िंदगी के वास्ते कितने अरमां

हर एक पल
है यहाँ नए  इम्तहाँ की तरह
न जाने कब कहाँ  रुक जाए चलता ये कारवां


 

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