कितना ग़ाफ़िल है आदमी जो ये सोचता है
दिखाई देती है जितनी है बस यही दुनियां
तेरे हिस्से में तो आये गिने चुने लमहे
हैं इस ज़मीन के नीचे दबी हुईं सदियाँ
छोटी चादर है तो फिर पैर न फैला इतने
ज़रा सी ज़िंदगी के वास्ते कितने अरमां
हर एक पल है यहाँ नए इम्तहाँ की तरह
न जाने कब कहाँ रुक जाए चलता ये कारवां
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