कई राहों को एक मरक़ज़ पे मिलते हमने देखा है
निकल जाता है चौराहा तो फिर राहें नहीं मिलतीं
ज़मीं की धूल से अपना बना के रखतीं हैं रिश्ता
इमारत टूटने से ऐसी बुनियादें नहीं हिलतीं
फ़िज़ा माक़ूल रहने से चमन गुलज़ार रहता है
हवाएं गर्म हो जाएँ तो कलियाँ भी नहीं खिलतीं
उसे हम याद करते हैं उसी का ग़म भुलाने को
वो यादें दर्द दे जाती हैं ज़ख्मों को नहीं सिलतीं
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