अब जिल्द चढ़ चुकी है क़िताबे ज़िंदगी पे
हम पीछे देखते हैं पन्ने पलट पलट के
दरिया ने कहाँ रोका था मिलने के रास्तों को
क्यूँ मिल न सके हम तुम जब दोनों एक तरफ़ थे
तुम मुझ पे लगाते हो तोहमत क्यूँ सरे महफ़िल
क्या मैं ही सब ग़लत था या तुम भी कुछ ग़लत थे
थी इंतिहा ऐ उल्फ़त वो रात ज़लज़ले की
सब लोग मर चुके हैं हम इससे बेख़बर थे
मत छेड़ अब तू मुझसे मेरी दास्ताने माज़ी
आ आ के सतायेंगे वो क़िस्से उम्र भर के
थोड़ी सी और मोहलत यारब मुझे भी दे दे
करते हैं प्यार मुझसे कुछ लोग इस शहर के
No comments:
Post a Comment