मोहब्बत में सुकूँ का कोई भी आलम नहीं होता
ये वो ग़म का खज़ाना है कभी जो कम नहीं होता
तन्हाई रात की रह रह पिघलती है तो बनता है
समन्दर में हर क़तरा आब का शबनम नहीं होता
जो खुशियाँ हैं तो फिर क्या है ज़माना ही हमारा है
छलकती आँख का कोई यहाँ हमदम नहीं होता
फिजायें कैसी भी बदलें भिगो जातीं हैं दामन को
जो आंसू सोख ले ऐसा कोई मौसम नहीं होता
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