लौट जाते हैं टकरा कर बदन से बेशुमार अलफ़ाज़
निकलते हैं जो दिल से बस वही दिल तक पहुँचते हैं
न जाने कितनी रूहे दफ़्न हो जाती हैं दरिया में
सफ़ीने खुशनसीबों के ही साहिल तक पहुँचते हैं
सज़ा मिलती है मासूमों को दुनिया की अदालत में
हाथ क़ानून के कब सच में क़ातिल तक पहुँचते हैं
कही है दास्ताँ कुछ तो तेरी झुकती निगाहों ने
यही बस देखना है कब तेरे दिल तक पहुँचते हैं
निकलते हैं जो दिल से बस वही दिल तक पहुँचते हैं
न जाने कितनी रूहे दफ़्न हो जाती हैं दरिया में
सफ़ीने खुशनसीबों के ही साहिल तक पहुँचते हैं
सज़ा मिलती है मासूमों को दुनिया की अदालत में
हाथ क़ानून के कब सच में क़ातिल तक पहुँचते हैं
कही है दास्ताँ कुछ तो तेरी झुकती निगाहों ने
यही बस देखना है कब तेरे दिल तक पहुँचते हैं
No comments:
Post a Comment