Wednesday, 18 December 2013

यहाँ बंजर ज़मीनें हैं....

न उगना  भूल  से भी ऐ गुलो  तुम इस गुलिस्तां में
यहाँ बंजर ज़मीनें हैं यहाँ बारिश नहीं होती

परिंदे भी बनाते हैं यहाँ घर आसमानों में
ज़मी पर चल सकें  पैरों में  वो ताकत  नहीं होती

झुकाये  हैं जिन्होंने सदियों तक गैरों के आगे सर 
उन्हें  सच बोलने की सच में ही आदत नहीं होती

कि जिस रब को हम सबने ही सरे बाज़ार बेचा है
दुआ मांगू उसी से अब मेरी हिम्मत नहीं होती 

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