काश ये ग़म भी हुआ करते कुछ तेरी तरह
हमसे मिलते और चले जाते अजनबी बनकर
कि तुम निगाह मिलाते रहे फ़रिश्तों से
हमने देखा तेरी महफ़िल में आदमी बनकर
रोज़ आती है तेरी याद दिल जलाने को
कभी तो तू भी आ इस घर में रोशनी बनकर
न जला तू इस पे दिये ,ये मज़ारे मुफ़लिस है
प्यार तेरा भी न रह जाए दिल्लगी बनकर
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